१. एक मंत्र को निश्चित संख्या में करने का संकल्प लीजिये
संकल्प यानि कुछ कार्य पूर्ण करने के विचारों को दृढ़ या स्थिर करना । अपने मन को यह कहकर स्थिर करना की अगला हरे कृष्ण महामंत्र करना ही है, यह पहला कदम है।
महामंत्र करने के लिए निश्चय करने का कारण यह है कि यह सरलता से किया जा सकता है । अगर हम मन को पूरी सोलह माला या एक माला भी ध्यानपूर्वक करने को कहेंगे तो यह असाध्य लगता है । परन्तु अगर हम मन को यह कहें कि अगला मंत्र ध्यानपूर्वक करो तो मन इस छोटे से आग्रह को मानने के लिए तैयार हो जाता है। अगर मन इतना विचलित है कि एक मन्त्र भी करने को तैयार नहीं है तो उसे आधा मंत्र करने के लिए विवश करें और इसका अर्थ यह हुआ कि एक एक शब्द को बिना ध्यान भटकाए सुनना।
एक बार इसमें सफल हो जाने पर इस क्रिया को दोहराएँ । मन को दोबारा एक पूरा मंत्र करने के लिए विवश करें। इस प्रक्रिया को बार बार दोहराएँ। अंततः मन परास्त होकर एक के बाद एक मन्त्र पर ध्यान केंद्रित करने लगेगा और कुछ समय बाद इस पवित्र नाम-ध्वनि में लीन हो जायेगा ।
२. मन की उपेक्षा करें
मन हरिनाम की शब्द ध्वनि में मग्न होता जायेगा तो भी समय समय पर किसी और विषय पर मुड़ने का प्रयत्न करेगा। ऐसे समय पर मन की मांगो को नकार दें और नाम-ध्वनि पर खींच कर लाएं । यह ऐसा ही है जैसे कोई छोटा बालक रो-रो कर अपने पिता को वह चीज लेने के लिए विवश करता है परन्तु पिता शांत रहते हुए बालक की बातों पर ध्यान नहीं देता ।
धीरे धीरे बालक समझ जाता है कि उसे वह वस्तु नहीं मिलेगी और वह भी शांत हो जाता है। इसी तरह मन अनेक प्रकार के विचारों को प्रस्तावित करेगा और ध्यान भटकाने का प्रयास करेगा परन्तु हमें उसकी उपेक्षा करते हुए जप पर ध्यान लगाना चाहिए ।
३. पवित्र हरिनाम की शरण लें
अब मन हरिनाम की शब्द-ध्वनि में लीन हो चूका है । पवित्र हरिनाम के अलावा और कुछ नहीं सूझ रहा और मन भी केन्द्रित है । यह समय है जब पूर्ण समर्पण के साथ हमें आभास करना करना चाहिए कि पवित्र हरिनाम और भगवान् कृष्ण में कोई अंतर नहीं है और यही हमारा लक्ष्य है जिसके उपरांत हमें किसी प्रकार की इच्छा नहीं रह जाती ।
पद्मपुराण में कहा गया है–
नाम: चिंतामणि कृष्णश्चैतन्य रस विग्रह: ।
पूर्ण शुद्धो नित्यमुक्तोSभिन्नत्वं नाम नामिनो: ।।
हरिनाम उस चिंतामणि के समान है जो समस्त कामनाओं को पूर्ण सकता है। हरिनाम स्वयं रसस्वरूप कृष्ण ही हैं तथा चिन्मयत्त्व (दिव्यता) के आगार हैं । हरिनाम पूर्ण हैं, शुद्ध हैं, नित्यमुक्त हैं । नामी (हरि) तथा हरिनाम में कोई अंतर नहीं है । जो कृष्ण हैं– वही कृष्णनाम है। जो कृष्णनाम है– वही कृष्ण हैं ।
४. कृष्ण-कृपा प्राप्ति
हमारे इस निष्कपट प्रयास को देखकर अगर हरिनाम की इच्छा हुयी तो वे अपनी अहैतुकी कृपा से हमें शुद्ध भक्ति कि मधुरता की झलक दिखा सकते हैं ।
पुनः अवलोकन :
१. संकल्प करें
२. मन की उपेक्षा करें
३. हरिनाम की शरण लें
४. भगवान कृष्ण (हरिनाम) के अहैतुकी कृपा की प्रतीक्षा करें
अहैतुकी भक्ति का अर्थ है बिना किसी हेतु के भक्ति करना – कोई प्रयोजन नहीं , कोई हेतु नहीं , कोई डिमाण्ड नहीं , कोई माँग नहीं , कोई चाह नहीं — तुम मुझे चाहे दुखों में रखो या सुखों में – उससे कोई फर्क नहीं पड़ता पर सर्व अवस्थाओं में मैं सिर्फ तुमसे ही प्रेम करता हूँ और तुम्हारा ही आश्रय है।
तुम न चाहो – कोई बात नहीं पर मैं तुम्हें चाहता रहूँगा – यह अहैतुकी भक्ति का लक्षण है और यही भक्ति चाहे गुरु के प्रति हो या परमात्मा के प्रति – तुम्हें सर्व सिद्धि प्रदान कर सकती है ।
यह अवश्य परिणाम दायक होगा ।
हरिनाम प्रभु की जय !!
Acharya Mukesh
Astro Nakshatra 27
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