नवरात्री-हवन
नारदपुराण के अनुसार नवरात्र में मां दुर्गा की पूजा हवन के बिना अधुरी मानी जाती है। आज विधि की जानकारी के अभाव में अक्सर लोग मंत्रों के बिना ही यह हवन करते हैं।
अब बात करते हैं दैनिक हवन विधि का जिसका उपयोग आप नवरात्रों के दौरान स्वयं भी कर सकते हैं। सबसे पहले मां दुर्गा की पूजा के बाद एक पात्र (कड़ाही या मिट्टी के बर्तन) में अग्नि स्थापना करें। उसमें आम की लकड़ी व कपूर रखकर जला दें।
फिर पूरब दिशा की ओर मुंह करके बैठ जाये ! शुभ कार्यों के लिए हमारे हिंदू धर्म में पूर्व दिशा और उत्तर दिशा को शुभ माना गया है ! हवन करने के लिए हमें पूर्व दिशा या उत्तर दिशा की ओर मुंह कर बैठ जाना होगा !
ओं भूर्भुव: स्वः ।।
इस मंत्र का उच्चारण करके अग्नि जला अगले मंत्र से आह्वाहन करे। वह मंत्र यह है-
ओं भूर्भुवः स्वर्धौरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा ।
तस्यास्ते पृथिवी देवयजनि पृष्ठेऽग्निमन्नादमन्नाधायादधे ।।
ओम् उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूर्ते संसृजेथामयं च ।
आस्मिन्त्सधस्थे अध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्च सीदत ।।
इस मंत्र से जब अग्नि समिधाओं में प्रविष्ट होने लगे तब तीन लकड़ी आठ-आठ अंगुल की घृत में डूबो उनमें से नीचे लिखे एक-एक मंत्र से एक-एक समिधा को अग्नि में चढ़ावें। वे मंत्र ये हैं -
ओम् अयं त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्धस्व चेद्ध वर्धय चास्मान् प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन समेधय स्वाहा ।
इदमग्नये जातवेदसे-इदं न मम् ।
इससे और अगले अर्थात् दोनों मन्त्रों से दूसरी समिधा अग्नि में चढ़ावें :-
ओं समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम् ।
आस्मिन् हव्या जुहोतन, स्वाहा ।।
इस मंत्र से तीसरी समिधा अग्नि में चढ़ावें :-
ओं तं त्वां समिदि्भरड़ि्गरो घृतेन वर्द्धयामसि ।
बृहच्छोचा यविष्ठय स्वाहा ।।
इदमग्नयेऽड़ि्रसे-इदन्न मम ।।
जलप्रोक्षण-मन्त्र
ओम् आदितेऽनुमन्यस्व । इससे पूर्व दिशा में
ओम् अनुमतेऽनुमन्यस्व । इससे पश्चिम दिशा मे
ओं सरस्त्वयनुमन्यस्व । इससे उत्तर दिशा मे जल छिड़कें ।
तत्पश्चात अंजलि में जल लेके वेदी के पूर्व दिशा आदि चारों ओर छिड़कें ।
इसके मंत्र है :-
ओं देव सवित: प्रसुव यज्ञं प्रसुव यज्ञोपतिं भगाय ।
दिव्यो गन्धर्व: केतपू: केतं न: पुनातु वाचस्पतिर्वाचं न: स्वदतु ।।
शुद्ध देशी घी का प्रयोग करें। उसके बाद निम्न मंत्रों से हवन शुरू करें:
इदमग्नये जातवेदसे-इदं न मम् ।
इससे और अगले अर्थात् दोनों मन्त्रों से दूसरी समिधा अग्नि में चढ़ावें :-
ओं समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम् ।
आस्मिन् हव्या जुहोतन, स्वाहा ।।
इस मंत्र से तीसरी समिधा अग्नि में चढ़ावें :-
ओं तं त्वां समिदि्भरड़ि्गरो घृतेन वर्द्धयामसि ।
बृहच्छोचा यविष्ठय स्वाहा ।।
इदमग्नयेऽड़ि्रसे-इदन्न मम ।।
जलप्रोक्षण-मन्त्र
ओम् आदितेऽनुमन्यस्व । इससे पूर्व दिशा में
ओम् अनुमतेऽनुमन्यस्व । इससे पश्चिम दिशा मे
ओं सरस्त्वयनुमन्यस्व । इससे उत्तर दिशा मे जल छिड़कें ।
तत्पश्चात अंजलि में जल लेके वेदी के पूर्व दिशा आदि चारों ओर छिड़कें ।
इसके मंत्र है :-
दिव्यो गन्धर्व: केतपू: केतं न: पुनातु वाचस्पतिर्वाचं न: स्वदतु ।।
ऊं आग्नेय नम: स्वाहा (ओम अग्निदेव ताम्योनम: स्वाहा),
ऊं गणेशाय नम: स्वाहा 11 आहुति
ऊं गौरियाय नम: स्वाहा,
ऊं वरुणाय नम: स्वाहा,
ऊं सूर्यादि नवग्रहाय नम: स्वाहा,
ऊं दुर्गाय नम: स्वाहा,
ऊं महाकालिकाय नम: स्वाहा
ऊं हनुमते नम: स्वाहा,
ऊं भैरवाय नम: स्वाहा,
ऊं कुल देवताय नम: स्वाहा,
ऊं स्थान देवताय नम: स्वाहा
ऊं ब्रह्माय नम: स्वाहा,
ऊं विष्णुवे नम: स्वाहा,
ऊं शिवाय नम: स्वाहा
सप्तशती पूर्णाहुति हवन के लिए अर्गला स्त्रोत्र में जो मंत्र आये हैं उनसे हवन करें :
मार्कण्डेय उवाच स्वाहा:
ॐ जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते॥१॥ स्वाहा:
जय त्वं देवि चामुण्डे जय भूतार्तिहारिणि।
जय सर्वगते देवि कालरात्रि नमोऽस्तु ते॥२॥ स्वाहा:
मधुकैटभविद्राविविधातृवरदे नमः।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥३॥ स्वाहा:
महिषासुरनिर्णाशि भक्तानां सुखदे नमः।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥४॥ स्वाहा:
रक्तबीजवधे देवि चण्डमुण्डविनाशिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥५॥ स्वाहा:
शुम्भस्यैव निशुम्भस्य धूम्राक्षस्य च मर्दिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥६॥ स्वाहा:
वन्दिताङ्घ्रियुगे देवि सर्वसौभाग्यदायिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥७॥ स्वाहा:
अचिन्त्यरुपचरिते सर्वशत्रुविनाशिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥८॥ स्वाहा:
नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चण्डिके दुरितापहे।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥९॥ स्वाहा:
स्तुवद्भ्यो भक्तिपूर्वं त्वां चण्डिके व्याधिनाशिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१०॥ स्वाहा:
चण्डिके सततं ये त्वामर्चयन्तीह भक्तितः।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥११॥ स्वाहा:
देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१२॥ स्वाहा:
विधेहि द्विषतां नाशं विधेहि बलमुच्चकैः।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१३॥ स्वाहा:
विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमां श्रियम्।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१४॥ स्वाहा:
सुरासुरशिरोरत्ननिघृष्टचरणेऽम्बिके।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१५॥ स्वाहा:
विद्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मीवन्तं जनं कुरु।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१६॥ स्वाहा:
प्रचण्डदैत्यदर्पघ्ने चण्डिके प्रणताय मे।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१७॥ स्वाहा:
चतुर्भुजे चतुर्वक्त्रसंस्तुते परमेश्वरि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१८॥ स्वाहा:
कृष्णेन संस्तुते देवि शश्वद्भक्त्या सदाम्बिके।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१९॥ स्वाहा:
हिमाचलसुतानाथसंस्तुते परमेश्वरि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥२०॥ स्वाहा:
इन्द्राणीपतिसद्भावपूजिते परमेश्वरि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥२१॥ स्वाहा:
देवि प्रचण्डदोर्दण्डदैत्यदर्पविनाशिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥२२॥ स्वाहा:
देवि भक्तजनोद्दामदत्तानन्दोदयेऽम्बिके।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥२३॥ स्वाहा:
पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्।
तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम्॥२४॥ स्वाहा:
इदं स्तोत्रं पठित्वा तु महास्तोत्रं पठेन्नरः।
स तु सप्तशतीसंख्यावरमाप्नोति सम्पदाम्॥२५॥ स्वाहा:
सप्तशती के साथ यदि आपने गायत्री-मंत्र का जाप भी किया है तो जाप संख्या के दशांश का हवन गायत्री-मंत्र के साथ स्वाहा लगाकर करें !
‘ऊँ भूर्भव स्व: तत्सवितुर्वरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात।’ स्वाहा :
इदं गायत्री इदं न मम् !!
अब सुखद स्वास्थ्य हेतु महामृत्युंजय-मंत्र से ५ आहुति डालें :
ॐ त्र्यम्बक यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धन्म। उर्वारुकमिव बन्धनामृत्येर्मुक्षीय मामृतात् !! स्वाहा :
इदं महामृत्युंजाये इदं न मम्
अंत में :
ॐ ऐं ह्लीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे नमः 11 आहुति
ऊं जयंती मंगलाकाली भद्रकाली कपालिनी दुर्गा क्षमा शिवाधात्री स्वाहा, स्वधा नमस्तुति स्वाहा:,
ओम ब्रह्मामुरारी त्रिपुरांतकारी भानु: क्षादी: भूमि सुतो बुधश्च: गुरुश्च शक्रे शनि राहु केतो सर्वे ग्रहा शांति कर: स्वाहा:,
ओम गुर्रु ब्रह्मा, गुर्रु विष्णु, गुर्रु देवा महेश्वर: गुरु साक्षात परब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नम: स्वाहा !
उपरोक्त मंत्रो का जप करने के बाद नारियल में हवन की बची सामग्री डाल ,कलावा बांधकर उसे अग्नि में समर्पित कर दें, इस विधि को वोलि कहते हैं। फिर पूर्ण आहूति के रूप में नारियल, घी, लाल धागा, पान, सुपारी, लौंग, जायफल आदि स्वाहा करें।
स्विष्टकृतहोम:- चमच्च में मीठा और घी लेकर अग्निदेव को अर्पित करें।
पूर्णाहुति मंत्र: गड़ी गोला काट कर उसमें बची हवन सामग्री,घी, पान पत्ता , सुपारी इत्यादि डाल ये मंत्र बोलते हुए अर्पित करें:-
वसोरधारा:-
इस मंत्र से घी नीचे से ऊपर धार बनाते हुए गोले पर डाल दें:-
वैसे तो हवन की विधि बहुत ही विस्तृत होती है परन्तु मैंने इसे आपकी सुविधा हेतु काफी सरल कर दिया है पर आपसे निवेदन है की इससे कम करने पर कहीं न कहीं कुछ कमी रह जाएगी इसलिए मैंने जितना लिखा है उतना तो अवश्य ही करें ! मैंने उतना ही लिखा है जो बिलकुल नहीं छोड़ा जा सकता ! आपने पूजा काफी मेहनत से की है तो बस पूर्णाहुति भी बड़े प्यार से करें !
इसके अतिरिक्त आप इस प्रयोग को भी इस हवन प्रक्रिया में जोड़ सकते हैं :-
दरिद्रता नाश एवं अकूट लक्ष्मी की प्राप्ति हेतु आप श्री सूक्त के सोलह ऋचाओं का कमलगट्टे से भी हवन कर सकते हैं ( यह एक वैकल्पिक प्रयोग है, यदि समय हो तो नवमी के दिन इसे करनेवाला कभी भी आर्थिक संकट में नहीं सकता ! यह आचार्य मुकेश के द्वारा सफलतापूर्वक किये गए शोध के सकरात्मक परिणाम पर आधारित है )यह आप अर्गला-मंत्र आहूति बाद कर सकते हैं, क्योंकि माता दुर्गा साक्षात् महालक्ष्मि ही हैं ! इस प्रयोग को लगातार हर महीने शुक्ल पंचमी को करने पर भिखारी भी धनवान बन सकता है ! कमलगट्टे को घी में डुबो कर हर श्लोक के साथ स्वाहा बोल आहुति दें।
ॐ हिरण्यवर्णां हरिणीं, सुवर्णरजतस्त्रजाम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आ वह।।१।। स्वाहा:
तां म आ वह जातवेदो, लक्ष्मीमनपगामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं, गामश्वं पुरूषानहम्।।२।। स्वाहा:
अश्वपूर्वां रथमध्यां, हस्तिनादप्रमोदिनीम्।
श्रियं देवीमुप ह्वये, श्रीर्मा देवी जुषताम्।।३।। स्वाहा:
कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम्।
पद्मेस्थितां पद्मवर्णां तामिहोप ह्वये श्रियम्।।४।। स्वाहा:
चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम्।
तां पद्मिनीमीं शरणं प्र पद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे।।५।। स्वाहा:
आदित्यवर्णे तपसोऽधि जातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽक्ष बिल्वः।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु या अन्तरा याश्च बाह्या अलक्ष्मीः।।६।। स्वाहा:
उपैतु मां दैवसखः, कीर्तिश्च मणिना सह।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन्, कीर्तिमृद्धिं ददातु मे।।७।। स्वाहा:
क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम्।
अभूतिमसमृद्धिं च, सर्वां निर्णुद मे गृहात्।।८।। स्वाहा:
गन्धद्वारां दुराधर्षां, नित्यपुष्टां करीषिणीम्।
ईश्वरीं सर्वभूतानां, तामिहोप ह्वये श्रियम्।।९।। स्वाहा:
मनसः काममाकूतिं, वाचः सत्यमशीमहि।
पशूनां रूपमन्नस्य, मयि श्रीः श्रयतां यशः।।१०।। स्वाहा:
कर्दमेन प्रजा भूता मयि सम्भव कर्दम।
श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम्।।११।। स्वाहा:
आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस मे गृहे।
नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले।।१२।। स्वाहा:
आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं पिंगलां पद्ममालिनीम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आ वह।।१३।। स्वाहा:
आर्द्रां य करिणीं यष्टिं सुवर्णां हेममालिनीम्।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह।।१४।। स्वाहा:
तां म आ वह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरुषानहम्।।१५।। स्वाहा:
य: शुचि: प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम्।
सूक्तं पंचदशर्चं च श्रीकाम: सततं जपेत्।।१६।। स्वाहा:
अग्नि में जो भी वस्तु डाली जाती है, उसे वह अपने पास नहीं रखती, वरन् उसे सूक्ष्म बनाकर वायु को, देवताओं को, बाँट देती है। हमें जो वस्तुएँ ईश्वर की ओर से, संसार की ओर से मिलती हैं, उन्हें केवल उतनी ही मात्रा में ग्रहण करें, जितने से जीवन रूपी अग्नि को ईंधन प्राप्त होता रहे। शेष का परिग्रह, संचय या स्वामित्व का लोभ न करके उसे लोक-हित के लिए ही अर्पित करते रहें।
आचार्य मुकेश
ऐस्ट्रो नक्षत्र २७ से
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